रविवार, 14 जुलाई 2013

घर

मैं रहता था तेरे घर,
मेरा घर था तेरा घर।
इक अंगना और इक छत थी,
इक धरती थी, इक अम्बर।
घण्टी और अज़ान एक थी,
इक चादर, इक पीताम्बर।
मेरे जन, तेरे बन्दे,
ज़हर बुझे, तीखे तेवर।
पूजा स्थल के पास खड़े,
दोनों ही काँपें थर-थर।
मन्दिर की धक्कमपेल देख,
मैं राम खड़ा ताकूँ बेघर।
चादर तार-तार हो गई,
कीच में लिपटा पीताम्बर।
तेरा तन जो है घायल,
घाव लगे मेरे मन पर।

ध्वज मेरा धराशायी हुआ,
जब लूटा था तेरा घर।
तेरी जो दीवार गिरी,
कहां रहा मेरा भी घर।
दिवाली बनी है शोक दिवस,
वन गमन हुआ दशहरे पर।
अंधियारे को भेद न पाया,
चिराग़ राम का कोई शर।
मन भटकाते उगलें शोले,
ओढ़ें आस्था का आडम्बर।
मारीच और शैतान घुसे,
लोक लुभावन चेहरे धर।
द्वारपाल ही बन बैठे स्वामी,
जय विजय स्वर्ग सिंहासन पर।
मैं रहता था तेरे घर,
मेरा घर था तेरा घर।

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